राय साहब ने गर्म होकर कहा -- अगर इसने देवीजी को हाथ लगाया, तो चाहे मेरी लाश यहीं तड़पने लगे, मैं उससे भिड़ जाऊँगा। आख़िर वह भी आदमी ही तो है।
मिरज़ा साहब ने सन्देह से सिर हिलाकर कहा -- राय साहब, आप अभी इन सबों के मिज़ाज से वाक़िफ़ नहीं हैं। यह फैर करना शुरू करेगा, तो फिर किसी को ज़िन्दा न छोड़ेगा। इनका निशाना बेखता होता है।
मि. तंखा बेचारे आनेवाले चुनाव की समस्या सुलझने आये थे। दस-पाँच हज़ार का वारा-न्यारा करके घर जाने का स्वप्न देख रहे थे। यहाँ जीवन ही संकट में पड़ गया। बोले -- सबसे सरल उपाय वही है, जो अभी खन्नाजी ने बतलाया। एक हज़ार ही की बात है और रुपए मौजूद हैं, तो आप लोग क्यों इतना सोच-विचार कर रहे हैं?
मिस मालती ने तंखा को तिरस्कार-भरी आँखों से देखा। ' आप लोग इतने कायर हैं, यह मैं न समझती थी। ' '
मैं भी यह न समझता था कि आप को रुपए इतने प्यारे हैं और वह भी मुफ़्त के! '
'जब आप लोग मेरा अपमान देख सकते हैं, तो अपने घर की स्त्रियों का अपमान भी देख सकते होंगे? '
'तो आप भी पैसे के लिए अपने घर के पुरुषों को होम करने में संकोच न करेंगी। '
खान इतनी देर तक झल्लाया हुआ-सा इन लोगों की गिटपिट सुन रहा था। एका-एक गरजकर बोला -- अम अब नयीं मानेगा। अम इतनी देर यहाँ खड़ा है, तुम लोग कोई जवाब नहीं देता। ( जेब से सीटी निकालकर ) अम तुमको एक लमहा और देता है; अगर तुम रुपया नहीं देता तो अम सीटी बजायेगा और अमारा पचीस जवान यहाँ आ जायगा। बस! फिर आँखों में प्रेम की ज्वाला भरकर उसने मिस मालती को देखा। ' तुम अमारे साथ चलेगा दिलदार! अम तुम्हारे ऊपर फ़िदा हो जायगा। अपना जान तुम्हारे क़दमों पर रख देगा। इतना आदमी तुम्हारा आशिक़ है; मगर कोई सच्चा आशिक़ नहीं। सच्चा इश्क़ क्या है, अम दिखा देगा। तुम्हारा इशारा पाते ही अम अपने सीने में खंजर चुबा सकता है। ' मिरज़ा ने घिघियाकर कहा -- देवीजी, ख़ुदा के लिए इस मूज़ी को रुपए दे दीजिए।
खन्ना ने हाथ जोड़कर याचना की -- हमारे ऊपर दया करो मिस मालती!
राय साहब तनकर बोले -- हर्गिज़ नहीं। आज जो कुछ होना है, हो जाने दीजिये। या तो हम ख़ुद मर जायँगे, या इन जालिमों को हमेशा के लिए सबक़ दे देंगे।
तंखा ने राय साहब को डाँट बतायी -- शेर की माँद में घुसना कोई बहादुरी नहीं है। मैं इसे मूर्खता समझता हूँ। मगर मिस मालती के मनोभाव कुछ और ही थे। खान के लालसाप्रदीप्त नेत्रों ने उन्हें आश्वस्त कर दिया था और अब इस कांड में उन्हें मनचलेपन का आनन्द आ रहा था। उनका हृदय कुछ देर इन नरपुँगवों के बीच में रहकर उनके बर्बर प्रेम का आनन्द उठाने के लिए ललचा रहा था। शिष्ट प्रेम की दुर्बलता और निर्जीवता का उन्हें अनुभव हो चुका था। आज अक्खड़, अनघड़ पठानों के उन्मत्त प्रेम के लिए उनका मन दौड़ रहा था, जैसे संगीत का आनन्द उठाने के बाद कोई मस्त हाथियों की लड़ाई देखने के लिए दौड़े। उन्होंने खाँ साहब के सामने जाकर निश्शंक भाव से कहा -- तुम्हें रुपये नहीं मिलेंगे।
खान ने हाथ बढ़ाकर कहा -- तो अम तुमको लूट ले जायगा।
'तुम इतने आदमियों के बीच से हमें नहीं ले जा सकता। '
'अम तुमको एक हज़ार आदमियों के बीच से ले जा सकता है। '
'तुमको जान से हाथ धोना पड़ेगा। '
'अम अपने माशूक़ के लिए अपने जिस्म का एक-एक बोटी नुचवा सकता है। '
उसने मालती का हाथ पकड़कर खींचा। उसी वक़्त होरी ने कमरे में क़दम रखा। वह राजा जनक का माली बना हुआ था और उसके अभिनय ने देहातियों को हँसाते-हँसाते लोटा दिया था। उसने सोचा मालिक अभी तक क्यों नहीं आये। वह भी तो आकर देखें कि देहाती इस काम में कितने कुशल होते हैं। उनके यार-दोस्त भी देखें। कैसे मालिक को बुलाये? वह अवसर खोज रहा था, और ज्योंही मुहलत मिली, दौड़ा हुआ यहाँ आया; मगर यहाँ का दृश्य देखकर भौचक्का-सा खड़ा रह गया। सब लोग चुप्पी साधे, थर-थर काँपते, कातर नेत्रों से खान को देख रहे थे और ख़ान मालती को अपनी तरफ़ खींच रहा था। उसकी सहज बुद्धि ने परिस्थिति का अनुमान कर लिया। उसी वक़्त राय साहब ने पुकारा -- होरी, दौड़कर जा और सिपाहियों को बुला, ला जल्द दौड़!
होरी पीछे मुड़ा था कि ख़ान ने उसके सामने बन्दूक़ तानकर डाँटा -- कहाँ जाता है सुअर, हम गोली मार देगा।
होरी गँवार था। लाल पगड़ी देखकर उसके प्राण निकल जाते थे; लेकिन मस्त साँड़ पर लाठी लेकर पिल पड़ता था। वह कायर न था, मारना और मरना दोनों ही जानता था; मगर पुलिस के हथकंडों के सामने उसकी एक न चलती थी। बँधे-बँधे कौन फिरे, रिश्वत के रुपए कहाँ से लाये, बाल-बच्चों को किस पर छोड़े; मगर जब मालिक ललकारते हैं, तो फिर किसका डर। तब तो वह मौत के मुँह में भी कूद सकता है। उसने झपटकर ख़ान की कमर पकड़ी और ऐसा अड़ंगा मारा कि ख़ान चारों खाने चित्त ज़मीन पर आ रहे और लगे पश्तों में गालियाँ देने। होरी उनकी छाती पर चढ़ बैठा और ज़ोर से दाढ़ी पकड़कर खींची। दाढ़ी उसके हाथ में आ गयी। ख़ान ने तुरन्त अपनी कुलाह उतार फेंकी और ज़ोर मारकर खड़ा हो गया। अरे! यह तो मिस्टर मेहता हैं। वही! लोगों ने चारों तरफ़ से मेहता को घेर लिया। कोई उनके गले लगता, कोई उनकी पीठ पर थपकियाँ देता था और मिस्टर मेहता के चेहरे पर न हँसी थी, न गर्व; चुपचाप खड़े थे, मानो कुछ हुआ ही नहीं।
मालती ने नक़ली रोष से कहा -- आपने यह बहुरूपपन कहाँ सीखा? मेरा दिल अभी तक धड़-धड़ कर रहा है।
मेहता ने मुस्कराते हुए कहा -- ज़रा इन भले आदमियों की जवाँमर्दी की परीक्षा ले रहा था। जो गुस्ताख़ी हुई हो, उसे क्षमा कीजिएगा।